Wednesday, May 03, 2017

तपस्या

मैं विश्मामित्र की तरह तपस्या करता रहा, तिल तिल गलता रहा,दिन में रात में सर्दी में बरसात में, तपस्या चलती रही,
मन में आश्वस्त था, फल गई तो फल गई, वरना मेनका तो कहीं नहीं गई

तपस्या करते करते बाल बढ़ गए, दाढ़ी बढ़ गई, जटा में जोएं पड़ गई।मन घबराया, मेनका इस रूप में देखेगी तो क्या सोचेगी,
मन को समझाया, अरे सोचेगी क्या, उसने बहोतोन की तपस्या भंग की है वोह खूब खेली खायी है,
उसे पता है की यह जटा जूट दाढ़ी मूंछ ही तो हम ऋषि मुनियों की कमाई है

तभी कहीं पायल की झंकार सुनाई दी, वातावरण में मस्ती छायी,मैंने कहा अब के मेनका आई

दूर कहीं बासुरी के स्वर सुनाई पड़े, मेरे कान हुए खड़े,
मैंने कहा यह क्या गड़बड़ घोटाला है,
दाल में ज़रूर कुछ काला है, आँखें खोली तो झटका लगा,
सामने खड़े थे साक्षात् भगवन कृष्ण कनाही।

बोले वत्स, तेरी तपस्या पूर्ण हुई बधाई, तू भवसागर तर गया,
मैंने कहा की मर गया, यह क्या हो गया, यह तो भगवान् जी गए,
मैंने डरते हुए पूंचा भगवन, वो मेनका वाला सीन कहाँ छूट गया

प्रभु बोले, जब भी तेरे जैसा कोई भला आदमी तपस्या करने लगता है,
तो दुष्ट इन्द्र उसकी तपस्या भंग करने के लिए मेनका इनका भेजता है,
मेनका करती तप का हरण, उससे पहले मैंने कर लिया तेरा वरण

मैंने कहा बॉस यह आपने आछा नही किया,
बॉस यह आपने अच्छा नही किया, पता नही किस जनम, का बदला लिया।अब भगवान् हैरान, बोले अगर तुझे मेरी चाह नही थी, तो तू तपस्या करने क्यों लगा?
मैंने कहा मेरे साथ हुआ है दगा.. 

मेरे साथ हुआ है दगा, बात यौं निकली की मैंने TV पे विश्वामित्र की कहानी देखी, 
उसमे मेनका वाला एपिसोड मुझे भा गया, और इस चक्कर में यहाँ आ गया |
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I think the poem is by Shri Om Prakash 'Aditya'. I dont remember the rest and cannot find it anywhere on web. Will complete it if i remenber more.





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